युवाओं को लुभाने में राहुल विफल क्यों?
राहुल कोई ऐसा बड़ा विचार नहीं दे पाए जो युवाओं को आकर्षित करता। दलित परिवार के साथ रात बिताना या मुंबई की लोकल में सफर करना कोई बड़ा विचार नहीं, फोटो खिंचाने का मौका भर है। उनकी ‘दूसरे भारतÓ की खोज भी काम कर जाती यदि वे इससे चिपके रहते।
मार्केटिंग के इस युग में शायद सामाजिक स्तर पर शहरी युवा से बढ़कर आकर्षक कोई ब्रांड नहीं है। यह एमटीवी जनरेशन चैनलों व उत्पादनों में छाई है। और अपेक्षा है कि अगले चुनाव में सत्ता की लड़ाई में यही सर्वव्यापी युवा पीढ़ी इतनी बड़ी भूमिका निभाएगी, जितनी उसने पहले कभी नहीं निभाई।
2014 के आम चुनाव में आर्थिक उदारीकरण के बाद आई पीढ़ी पहली बार वोट डालेगी। 1991 के बाद के बच्चे अब बड़े हो गए हैं। एक अनुमान के मुताबिक पहली बार वोट देने वाले 18 से 23 साल की उम्र के युवाओं की संख्या कुल 80 करोड़ मतदाताओं में 11 करोड़ है। एक अर्थ में यह सचिन तेंडुलकर की भी नहीं, विराट कोहली की पीढ़ी है। ट्वेंटी-20 के लिए इनकी भूख जीवन के लक्ष्यों में भी उतर आई है।
एक ऐसी पीढ़ी जो आक्रामक, महत्वाकांक्षी, उपभोगवादी और बदलाव के लिए बेचैन है। यह एक ऐसा भारत है, खासतौर पर मेट्रो शहरों का भारत, जिसने केवल मोबाइल का इस्तेमाल किया है। न तो कभी ब्लैक एंड व्हाइट टीवी देखा और न इस इंटरनेट कुशल पीढ़ी ने कभी सोवियत संघ का नाम ही सुना है।
सामान्य हालात में 43 वर्षीय राहुल गांधी और उनके युवा ‘मैनेजरÓ इस नए भारत के स्वाभाविक प्रतीक होने चाहिए न कि 62 वर्षीय नरेंद्र मोदी और उनका संघ परिवार। राहुल युवा हैं, अंग्रेजी बोलते हैं, टेलीविजन पर आकर्षक नजर आते हैं और टेक्नोलॉजी अपनाने में कुशल हैं। इसके बावजूद, जैसा कि हाल के युवा सर्वेक्षणों से पता चलता है, युवाओं की पसंद तो नरेंद्र मोदी हैं। युवा भारत को आकर्षित करने में नरेंद्र मोदी क्यों सफल हुए हैं, वहीं राहुल कहां विफल रहे हैं?
वर्ष 2007 में राहुल को युवा कांग्रेस व इसकी छात्र इकाई एनएसयूआई का प्रभार सौंपकर कांग्रेस महासचिव बनाया गया था। वादा था कि राहुल युवा राजनीति का चेहरा बदलेंगे और खासतौर पर युवा संगठनों का ‘लोकतांत्रीकरणÓ करेंगे। वे इन संगठनों में चुनाव कराने और ऊर्जा भरने में तो कामयाब रहें, लेकिन कांग्रेस में वंशवादी राजनीति की दुकानें खत्म करने में नाकामयाब रहें।
वे पारिवारिक संबंधों पर फली-फूली व्यवस्था में आमूल बदलाव नहीं ला पाए क्योंकि खुद वंशवाद की उपज होने के कारण शायद उनमें इसके लिए जरूरी नैतिक बल नहीं था। मेरिटोक्रेटिक (योग्यता पर जोर देने वाला) भारत के साथ अपनी पहचान जोडऩे की बजाय उन्होंने खुद को ‘बाबा लोगÓ की छवि में कैद होने दिया : सुविधा-सहूलियत के बीच पला ऐसा बच्चा जिसके लिए राजनीति पारिवारिक व्यवसाय की तरह है।
खास बात यह है कि राहुल ऐसा कोई बड़ा विचार नहीं दे पाए जो उन्हें किशोर भारत के लिए खासतौर पर आकर्षक बनाता। दलित परिवार के साथ रात बिताना या मुंबई की लोकल में यात्रा करना कोई बड़ा विचार नहीं बल्कि फोटो खिंचाने का मौका भर है। राहुल की ‘दूसरे भारतÓ की खोज भी काम कर जाती यदि वे इससे चिपके रहते। पर ऐसा नहीं हो सकता कि आप कलावती की दुर्दशा या विदर्भ में आत्महत्या करने वाले किसानों की विधवाओं पर भाषण दें और फिर भूल जाएं।
अन्ना के आंदोलन और दुष्कर्म विरोधी आंदोलनों में युवा वर्ग सड़कों पर उतर आया था। उस वक्त भी राहुल गायब थे। यह संभव नहीं कि संसद में आप गुमनाम बने रहें, कोई इंटरव्यू न दें, प्रेस से मुखातिब होने से कतराएं, कॉलेजों में होने वाले युवा उत्सवों के निमंत्रण ठुकराएं, ट्वीटर या फेसबुक पर आपका अकाउंट तक न हो और फिर आप चौबीसों घंटे बतियाने में लगी पीढ़ी तक पहुंचने की अपेक्षा करें। ऐसी पीढ़ी जो संप्रेषण पर ही फल-फूल रही है।
राहुल द्वारा छोड़े इस शून्य को भरने के लिए मोदी आगे आए। पिछले पांच वर्षों में उत्तरप्रदेश में यदा-कदा की सक्रियता छोड़कर, जहां राहुल लुटियन्स दिल्ली की दीवारों के पीछे छिपे रहे, वहीं मोदी ने युवाओं से जुडऩे का सायास व सतत प्रयत्न किया है। गूगल हैंगआउट हो, ट्वीटर अपडेट हो या छात्रों से मुखातिब होने की बात हो मोदी, शाहरुख जैसे हैं जो ‘चेन्नई एक्सप्रेसÓ के लिए युवा दर्शक जुटानेे हेतु 24 घंटे प्रमोशनल ओवरड्राइव में लगे हैं।
ऐसा भी नहीं है कि अगले चुनाव में विजेता इस बात से तय होगा कि ट्वीटर पर चाहनेवाले किसके ज्यादा हैं बल्कि इससे तय होगा कि भविष्य के लिए कौन बेहतर सपना पेश करता है। राहुल ने इंडिया बनाम भारत की थीम का चुनाव किया है। इसके विपरीत मोदी ने ‘गुजरात की तरह के भारतÓ का आर्थिक वृद्धि का मॉडल रखा है, जिसमें सरकार को निजी उद्यम में मददगार की तरह देखा जाता है।
1991 से पहले के दौर में गरीबी को लेकर सचेतन समाज का राहुल का विचार हो सकता है काम कर जाता। लेकिन 1991 के बाद की पीढ़ी तो सिर्फ तेजी से भविष्य में जाना चाहती है। वैचारिक मतभेद और गरीब-अमीर के भेद का उसके लिए कोई अर्थ नहीं है। उसे तो ऐसे राजनीतिक नेतृत्व की तलाश है जो युगों पुरानी समस्याओं का चुटकी बजाते ही समाधान कर दे। शब्दों का आडंबर वास्तविकता से मेल खाए यह जरूरी नहीं, लेकिन उसे कड़े फैसले लेने और विकास की बात करने वाले मोदी आकर्षित करते हैं। यदि उन्हें निरंकुश बताया जाता है और 2002 में दंगे रोकने की विफलता से जोड़ा जाता है तो क्या, वे आर्थिक लक्ष्यों की हमारी भाषा तो बोलते हैं।
विडंबना यह है कि युवाओं में ऐसी लोकप्रियता हासिल करने वाले अंतिम नेता राहुल के पिता राजीव गांधी ही थे। कम्प्यूटर को अपना शस्त्र बनाकर चेहरे पर ताजगी लिए राजीव ने टेक्नोलॉजी को बदलाव के जरिये के रूप में पेश किया। मोदी खुद के व्यक्तित्व को बदलाव का प्रतीक बनाकर पेश कर रहे हैं, एक ऐसा मर्दाना हीरो जो जर्जर होती यथास्थितिवादी व्यवस्था को बदलकर रख देगा। राहुल को मोदी की चुनौती का जवाब देना होगा, जो वे अब तक करने में विफल रहे हैं। क्यों नहीं राहुल शिक्षा में व्याप्त व्यावसायीकरण के खिलाफ अभियान चलाते? यह वे अब भी कर सकते हैं। सही है कि हमें बिजली, पानी, सड़क चाहिए पर हमें गुणवत्तापूर्ण शिक्षा भी चाहिए।
पुनश्च: मेरा 18 वर्षीय बेटा पहली बार वोट देगा। मैंने उससे पूछा कि मोदी के स्वतंत्रता दिवस पर दिए भाषण के बारे में उसका क्या ख्याल है। क्या इसका वक्त सही था? जवाब मिला, ‘मुझे यह तो नहीं पता कि क सही समय था या नहीं पर कम से कम वे बोले तो सही।Ó और इसमें ही सब कुछ आ जाता है।
राजदीप सरदेसाई
आईबीएन18नेटवर्क के एडिटर इन चीफ
Source : bhaskar.com

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